बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-2 समाजशास्त्र बीए सेमेस्टर-2 समाजशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-2 समाजशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर
महत्वपूर्ण तथ्य
मार्क्स का कथन है कि - "एक सामाजिक वर्ग को उसके उत्पादन के साधनों और सम्पत्ति के वितरण के साथ होने वाले सम्बन्धों के सन्दर्भ में ही परिभाषित किया जा सकता है।'
गोल्डनर का कथन है कि "एक सामाजिक वर्ग उन व्यक्तियों अथवा परिवारों की समग्रता है जिनकी आर्थिक स्थिति लगभग समान होती है।"
भारत में सामाजिक वर्ग की विशेषताएँ निम्नांकित हैं-
(1) निश्चित संस्तरण
(2) वर्ग चेतना
(3) उप-वर्गों का निर्माण
(4) सामान्य जीवन
(5) खुलापन तथा उतार-चढ़ाव
(6) आर्थिक आधार का महत्त्व
(7) पूर्णतया अर्जित
(8) वर्गों की उपस्थिति आवश्यक है।
सामाजिक वर्गों की विवेचना से एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि भारत में विभिन्न वर्गों का निर्माण किस आधार पर हुआ है अथवा वे कौन-से आधार हैं जिनके द्वारा एक व्यक्ति को किसी विशेष वर्ग की सदस्यता प्राप्त होती है ? जैसा कि सामाजिक वर्ग की परिभाषाओं से स्पष्ट हो चुका है, विभिन्न विद्वानों ने वर्ग-निर्माण के भिन्न-भिन्न आधार प्रस्तुत किये हैं। एक ओर मार्क्स और वेबर का विचार है कि केवल आर्थिक स्थिति अथवा सम्पत्ति ही वर्ग-निर्माण का सबसे बड़ा आधार है, तो दूसरी ओर विद्वानों ने वर्ग निर्माण के भिन्न-भिन्न आधार प्रस्तुत किये हैं। जबकि कुछ दूसरे विद्वानों ने सांस्कृतिक विशेषताओं और सामाजिक स्थिति को वर्ग निर्माण का सबसे बड़ा आधार मान लिया है।
मैकाइवर का कथन है कि - वर्ग विभाजन का सबसे प्रमुख आधार कुछ भावात्मक विशेषताएँ ही हैं। आपके शब्दों में, "यह केवल पद की भावना ही है जो आर्थिक, राजनीतिक अथवा धार्मिक शक्तियों, जीवन-यापन के विशेष ढंगों और सांस्कृतिक विशेषताओं द्वारा एक वर्ग को दूसरे से पृथक् करती है।'
भारतीय संदर्भ में इन आधारों को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है-
(1) सम्पत्ति, धन और आय
(2) परिवार तथा नातेदारी
(3) निवास की स्थिति
(4) निवास स्थान की अवधि
(5) शिक्षा
(6) व्यवसाय की प्रकृति
(7) धर्म
व्यवहारिक रूप से आज नगरीय वर्ग-संरचना से सम्बन्धित विभिन्न वर्गों की कोई निश्चित सूची नहीं बनाई जा सकती, लेकिन इन वर्गों की प्रकृति को मुख्य रूप से चार भागों में विभाजित करके समझा जा सकता है-
उच्च वर्ग - नगरीय वर्ग-संरचना में इस वर्ग का सम्बन्ध उन विभिन्न वर्गों से है, जिनकी प्रस्थिति सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टिकोण से सबसे अधिक उच्च समझी जाती है।
सम्पन्न मध्यम वर्ग - मध्यम वर्ग की अवधारणा का इसके जीवन के प्रतिमानों तथा वर्गीकरण का सबसे पहले लॉकबुड ने व्यवस्थित रूप से विवरण प्रस्तुत किया।
सामान्य मध्यम वर्ग - भारत की वर्गीय संरचना में तीसरा स्थान उस सामान्य मध्यम वर्ग का है, जिसकी आर्थिक प्रस्थिति बहुत सामान्यतर स्तर की होती है।
निम्न वर्ग - भारतीय समाज की वर्ग संरचना के सबसे निचले हिस्से में स्थित विभिन्न वर्ग इस श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं।
श्रमिक वर्ग का सम्बन्ध उन व्यक्तियों से है जो कारखानों, खानों, चाय बागानों तथा विभिन्न प्रकार - के छोटे-बड़े उद्योगों में दैनिक मजदूरी या बहुत कम वेतन पर काम करते हैं।
घरेलू सेवा वर्ग का सम्बन्ध उन पुरुषों, स्त्रियों तथा बच्चों से है जो नगरों में सम्पन्न - मध्यम तथा मध्यम वर्ग के घरों में विभिन्न प्रकार की सेवाएँ देकर अपनी आजीविका चलाते हैं।
प्राचीन काल से स्त्री को इस संसार की जन्मदात्री माना जा रहा है। भारतीय समाज के सन्दर्भ में स्त्रियों की स्थिति अधिक उत्तम रही है।
डेनियल थर्नर ने अपने अध्ययन के आधार पर यह स्पष्ट किया कि ब्रिटिश काल में भारतीय गाँवों के वर्ग की संरचना में तीन वर्गों की प्रधानता थी-
(1) भूमि के मालिक अथवा जमींदार
(2) महाजन अथवा साहूकार
(3) जमींदार की भूमि पर काम करने वाले कृषि मजदूर
ए. आर. देसाई ने भूमि के स्वामित्व, आर्थिक प्रस्थिति तथा राजनीतिक शक्ति के आधार पर ग्रामीण वर्ग संरचना में चार वर्गों का उल्लेख किया जिन्हें उन्होंने-
(1) बड़े कृषक
(2) छोटे कृषक
(3) सीमान्त कृषक
(4) भूमिहीन मजदूर वर्ग के नाम से सम्बोधित किया
ग्रामीण वर्ग संरचना में वह वर्ग है जिससे सम्बन्धित कृषक 4-5 एकड़ तक कृषि भूमि के स्वामी होते हैं तथा अपनी भूमि पर स्वयं खेती करके इतनी आय प्राप्त कर लेते हैं जिससे वे अपनी सामान्य आवश्यकताओं को पूरा कर सकें।
सीमान्त कृषक वर्ग - भारत में अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में इस वर्ग के किसानों की संख्या पहले, दूसरे और तीसरे वर्ग के कृषकों की तुलना में काफी अधिक है।
भूमिहीन मजदूर वर्ग - जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, यह वह ग्रामीण वर्ग है जिसके पास अपनी कोई भूमि नहीं होती।
ग्रामीण वर्ग संरचना का वर्तमान रूप केवल आर्थिक विभाजन से सम्बन्धित नहीं है। वर्ग व्यवस्था में उन ग्रामीणों के महत्त्व और प्रभाव में वृद्धि हो रही है जिनका ग्रामीण जीवन पर सामाजिक तथा राजनीतिक प्रभाव अधिक है।
स्वतन्त्रता के बाद ग्रामीण वर्ग संरचना में विभाजन और विस्तार की प्रवृत्ति देखने को मिलती है।
सैद्धान्तिक रूप से वर्ग संरचना की प्रकृति को एक खुली हुई व्यवस्था के रूप में स्पष्ट किया जाता है।
सामाजिक वर्गों की प्रकृति को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि भारतीय समाज की संरचना का निर्माण कितने तरह के वर्गों से हुआ है तथा इन सभी वर्गों की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं ? साधारणतया लगभग सभी विद्वान यह मानते हैं कि सभी समाजों में सामाजिक वर्गों की संरचना एक पिरामिड की तरह होता है जिसमें सर्वोच्च वर्गों के सदस्यों की संख्या सबसे कम और निम्न वर्गों के सदस्यों की संख्या सबसे अधिक होती है, लेकिन इस पिरामिड का निर्माण कितने वर्गों से होता है, इस बारे में विद्वानों में मतभेद है।
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